हरी खाद अपनायें- मृदा उरर्वता बढ़ाऐं (Use green manure- increase soil fertility)
वर्तमान में फसल उत्पादन हेतु कितना ज्यादा कृत्रिम खाद का उपयोग किया जा रहा जिससे पैदावार तो ठीक हो रहा किन्तु इसके अँधा धुंध उपयोग से कई फसल का गुण भी परिवर्तन हो जा रहा है उदहारण के तौर पर जीराफूल धान को लेते है , रासायनिक खाद के उपयोग से इसका खुशबू कम हो जाता है, अब यहाँ ये समस्या आ गया की कैसे बिना गुण परिवर्तन के ज्यादा पैदावार ले, तो चलिए जानते है हरी खाद के बारे में , यह क्या है और कैसे बनाते है ।
मृदा उरर्वता बनाए रखने के लिये हरी फसलों को खेत में जोतना एक सामान्य एवं प्राचीन व्यवहार है। आज विश्व के अनेक भागों में इसका प्रयोग भूमि की भौतिक दशा सुधारने के लिये किया जाता है।
“अविघटित हरे पादप अवशेषों या पौधौं को मृदा की भौतिक दशा सुधारने तथा मृदा उरर्वता बनाये रखने हेतु, मृदा में जोतना अथवा दबाना हरी खाद देना कहलाता है।”
हरी खाद के लिये कुछ दलहनी व अदलहनी तथा हरी पत्तियों का उपयोग किया जाता है, लेकिन हरी खाद के लिये दलहनी फसलें अच्छी होती हैं क्योंकि दलहनी फसलों की जड़ों में गाठें होती है जिनमें एक विशेष प्रकार के जीवाणु रहते हैं जो वायुमण्डल की तत्वीय नाइट्रोजन को पौधौं की जड़ों में कार्बनिक नाइट्रोजन के रुप में स्थिर रखने की क्षमता रखते हैं। खरीफ एवं रबी के मौसमो में उगाई जाने वाली विभिन्न फसलों की बुवाई व रोपाई के पहले विभिन्न हरी खाद की फसलों की बुवाई कर खेती में हरी खाद दी जाती है।
हरी खाद की फसलों का विवरण इस प्रकार हैः
दलहनी फसलें- सनई, ढैंचा, मूंग, उड़द, राजमा, मटर एवं बरसीम आदि।
अदलहनी फसलें- गेंहू, जौ, मक्का, सरसों, ज्वार एवं सुरजमुखी आदि।
हरी खाद की फसल को उगाते समय निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखते हुए सस्य क्रियाऐं करना चाहिए-
फसलों का चुनाव-
भूमि की दशानुसार, जैसे- उपरी भूमियाॅ, निचली भूमियाॅ, भारी एवं क्षारीय भूमियाॅ तथा पड़ती भूमि आदि के अनुसार हरी खाद की उचित फसल का चुनाव करना चाहिए। जैसे धान के निचले खेतों में, खरीफ मौसम में हरी खद की फसल बोते समय सनई की जगह ढैंचा की बुवाई करनी चहिए, क्योंकि मानसून के सक्रिय होते ही इन खेतों में पानी का भराव हो जाता है जिससे जल निकास की समस्या के कारण पानी को खेतों से बाहर नहीं निकाला जा सकता है ऐसी दशा में सनई की फसल जलमग्न क्षेत्रों में मर जाती है, जबकि ढैंचा की फसल सफलतापूर्वक उगती है। इसी प्रकार भारी एवं क्षारीय मृदाओं में हरी खाद सहनशील फसलें जैसे- सेंजी एवं ढैंचा की फसल का चुनाव करना चाहिए।
पड़ती भूमि पर हरी खाद जैसे गेहूँ अथवा सब्जियों वाली भूमि में खली खेतों में सनई, ग्वार, लोबिया आदि फसलें मुख्य फसलों से पूर्व बो दी जाती है। इस प्रकार की फसलों में खरीफ की फसलें नहीं बोई जा सकती है। हरी खाद की फसल खेत में दबा देने के बाद कुछ समय के लिये खेत पड़ती के रुप में तैयार किया जाता है तथा बाद में रबी की फसल बुवाई कर दी जाती है।
हरी खाद की फसल की बुवाई का समय-
भारत में भौगोलिक विविधताओं तथा जलवायु में भिन्नता के कारण हरी खाद की फसल की बुवाई का समय निश्चित करना कठिन होता है। अतः जलवायु के आधार पर बुवाई का समय परिवर्तनीय है मानसूनी क्षेत्रों में खरीफ मौसम में हरी खद देने के लिये मानसून के प्रारंभ होते ही बुवाई कर देना चाहिए।
भूमि की तैयारी-
हरी खाद की फसलें की बुवाई करने के लिये किसी विशेष प्रकार से भूमि की तैयारी की आवश्यकता नहीं होती है, भूमि की 1 या 2 बार मिटटी पलट वाली हल से जुताई कर देना चाहिए। लेकिन बीज की बुवाई करते समय यह ध्यान देना चाहिए भूमि अंकुरण के लिये पर्याप्त नमीं है या नहीं।
फाॅस्फेट उर्वरक-
हरी खाद की बुवाई के समय फाॅस्फेटिक उर्वरक डालना अत्यधिक लाभदायक रहता है इससे फसल की जड़ों का विकास अधिक होता है तथा नाइट्रोजन स्थिरीकरण के लिये भूमि में फाॅस्फोरस की आवश्यक है इसलिये यदि भूमि में फाॅस्फोरस तत्व की कमी हो तो फाॅस्फेटिक उर्वरक खेत में मिला देना चाहिए।
बीज दर-
हरी खाद वााली फसलों का बीज दर समान फसल की अपेक्षा अधिक रखना चाहिए जैसे- सनई-30 किलो ग्राम, ढैंचा-35 किलो ग्राम, ग्वार-25 किलो ग्राम प्रति हेक्टेयर आदि।
बुवाई विधि-
हरी खाद वााली फसलों की बुवाई छिड़काव विधि से तैयार खेत में छिटककर बोया जाता है। तथा खेत में समान रुप से बीज को फैलाया जाता है। बीजों को ढकने के लिये बुवाई के पश्चात हल्का पाटा चला देना चाहिए।
सिंचाई -
सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो तो 10 एवं 20 दिनों के अन्तराल में सिंचाई करते रहना चाहिए।
हरी खाद फसल को भूमि में दबाने का समय-
हरी खाद के प्रयोग से अधिकतम लाभ के लिये खेत में हरी खाद फसल को मिटटी में दबाने की अवधि बहुत महत्वपूर्ण होती है। प्रायः फसल को उसके फूलने की अवस्था पर भूमि में मिला देना चाहिए क्योंकि इस अवस्था में हरी खाद के पौधौं में पोषक तत्व अधिक पाये जाते हैं तथा फसल के तने कोमल होते हैं जिससे पौधे जल्दी अपघटित हो जाते हैं। देर से फसल को मृदा में दबाने पर उसमें रेशे अधिक बन जाते हैं जिसकी वजह से पौधे अगली फसल के बोने तक अपघटित नहीं हो पाते हैं और मृदा का कार्बन: नाइट्रोजन अनुपात बढ़ जाता है जिससे नाइट्रोजन की प्राप्यता में कमी हो जाती है। अधिकांश हरी खाद वााली फसलों में पुष्पावस्था लगभग 6-8 सप्ताह के बीच आ जाती है । सनई को 8 सप्ताह से पूर्व मृदा में दबाने से अधिकतम लाभ प्राप्त होता है।
हरी खाद फसल को मिट्टी में दबाने की तकनीक- हरी खाद को भूमि में दबाने से पहले खड़ी हरी खाद की फसल में पाटा चला लेना चाहिए या ग्रीन मैन्योर टैªम्पलर भू-परिष्करण यन्त्र से फसल को जमीन में गिरा लेना चाहिए इसके बाद मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई कर हरी खाद को मिट्टी में दबा देना चाहिए।
हरी खाद एवं आगामी फसल की बुवाई का अन्तराल-हरी खाद की फसल को मिट्टी में दबाने व अगली फसल के बोने के बीच पर्याप्त अन्तराल होना चाहिए ताकि हरी खाद का अच्छी तरह से अपघटित हो सके। धान उगाने वाले क्षेत्रों में मौसम गर्म व नम रहता है जो कि अधिक वर्षा व तापमान के कारण होता है। ये परिस्थितियाँ हरी खाद के अपघटन को प्रोत्साहित करती है यदि हरी खाद की फसल को कोमल अवस्था में दबाया गया हो तो उसी दिन धान की रोपाई की जा सकती है। परन्तु अन्य रबी फसलों को जैसे गेहूँ, आलू,गन्ना एवं सब्जियों आदि को हरी खाद देने के 35-40 दिन बाद ही होना चाहिए।
हरी खाद के साथ अकार्बनिक उर्वरकों का प्रयोग- हरी खाद के साथ अकार्बनिक उर्वरकों का प्रयोग अधिक लाभदायक होता है। हरी खाद की बुवाई करते समय कल्चर, फाॅस्फेटिक उर्वरक तथा बोरान व मोलिब्डिनम का प्रयोग किया जाता है तो इसका प्रभाव अगली फसल पर इन उर्वरकों के सीधे प्रयोग की अपेक्षा अधिक होता है। अकार्बनिक उर्वरकों के उपयोग से नाइट्रोजन स्थिरीकरण में वृध्दि होती है। इस प्रकार पौधे अगली फसल की नाइट्रोजन की आवश्यकता को पूर्ण करने में सक्षम हो ते हैं। यदि मृदा का उर्वरता कम है तो हरी खाद पलटने के बाद भी अकार्बनिक उर्वरकों का प्रयोग उपयोग लाभदायक रहता है फसल के लगभग आधे पोषक तत्व हरी खाद से प्राप्त होते हैं।
हरी खाद से लाभ-
1. मृदा में नाइट्रोजन का मात्रा बढ़ता है। भिन्न-भिन्न फसलों से 35-110 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तक नाइट्रोजन प्राप्त हो सकती है।
2. यह भूमि में जैविक पदाथों की मात्रा को बढ़ाती है, जो मृदा में सूक्ष्म जीवों की सक्रियता को बढ़ाती है।
3. हरी खाद की फसलें मृदा का निचली सतह से पाषक तत्वों का दोहन करके ऊपरी सतह तक पहुँचा देती है।
4. यह भूमि की संरचना को सुधारती है तथा क्षारीय एवं लवणीय मृदाओं का सुधार करती है।
5. हरी खाद के प्रयोग से जल धारण क्षमता में वृद्धि होती है जिससे वर्षा जल के अपघटन में कमी होती है।
6. हरी खाद के प्रयोग से मृदा कटाव को राका जा सकता है इस प्रकार मृदा की ऊपरी उपजाऊ सतह को सुरक्षित रख सकते हैं।
7. इसके प्रयोग से अगली फसल को नाइट्रोजन, फाॅस्फोरस, कैल्शियम, पोटेशियम, मैग्नीशियम, आयरन आदि तत्वों की सुलभता में वृद्धि होती है।
8. इसके प्रयोग से आगे बोई जाने वाली फसल की उपज में वृद्धि होती है।




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