जशपुर में काजू की खेती- एक अच्छा आय स्त्रोत (Cashew farming in Jashpur-a good income source)








डॉ विरेन्द्र कुमार पैंकरा 


छत्तीसगढ़  के जशपुर जिले में दुलदुला क्षेत्र के किसान धान की पारंपरिक खेती छोड़कर काजू और आम की पैदावार लेकर अपनी कमाई दोगुना कर ली है। सात साल पहले किसानों ने धान की खेती को छोड़कर काजू और आम के पौधे लगाने का फैसला लिया और ढाई हजार एकड़ खेत में दशहरी, लंगड़ा, आम्रपाली, तोतापरी के पौधे लगाए। अब पौधे पेड़ बन चुके हैं और इसमें लगे आमों की बाजार में खासी डिमांड होने किसानों की अच्छी खासी कमाई हो जा रही है।

दुलदुला क्षेत्र के किसान आमदनी बढ़ाने के लिए धान की खेती छोड़कर पहले काजू की पैदावार में हाथ आजमाया। इसके अलावा जमीन पर बाड़ी विकास योजना में विभिन्न प्रजाति के आम के पौधे लगाए। अच्छी पैदावार होने से किसानों के चेहरे खिल उठे हैं। आम की डिमांड बढ़ने से किसान अच्छी आमदनी की उम्मीद जता रहे हैं। दशहरी आम मार्केट में 50 रुपए किलो में बिक रहे। इसकी डिमांड अंबिकापुर, कोरबा और रायगढ़ तक से की जा रही है।

दुलदुला क्षेत्र के खंडसा, बकुना, गिनाबहार सहित कई गांवों के किसानों ने बाड़ी विकास कार्यक्रम में काजू और और आम की खेती की। अब अच्छी पैदावार होने से किसानों की क्षेत्र में अलग पहचान बन गई है। नगदी खेती करने से साल में एक किसान की एक लाख रुपए से अधिक की अतिरिक्त आमदनी हो जा रही है।

काजू उत्पादन और निर्यात के क्षेत्र में वियतनाम से कड़ी टक्कर झेल रहे भारत में उत्पादन क्षमता विस्तार के लिए छत्तीसगढ़ जैसे नए काजू उत्पादक क्षेत्र बेहद अहम साबित हो रहे हैं। काजू उत्पादन के लिए उपयुक्त जलवायु के चलते छत्तीसगढ़ में 19677.50 हेक्टेयर जमीन पर काजू की खेती होने लगी है, जिसके चलते छत्तीसगढ़ में काजू का कुल उत्पादन बढ़कर 918२.30 टन हो गया है।

भूमि- सामान्यतः 
धारणा यह है कि काजू हर प्रकार की भूमि में उगाया जा सकता है लेकिन अच्छी पैदावार के लिए अच्छी भूमि का होना जरूरी है। काजू की खेती के लिए जल निकास वाली गदरी बलुई दोमट भूमि  जिसमे कठोरता न हो लाभदायक होती है। काजू की खेती बलुई भूमि में भी की जा सकती है परन्तु उर्वरण का उत्तम प्रबंध होना जरूरी है. जल भराव वाली भूमि काजू की खेती के लिए उपयुक्त नहीं होती है।

जलवायु
काजू एक उष्ण (ट्रोपीकल ) पौधा है जो अधिक तापक्रम करे सहन कर सकता है. जवान पौधे पाला सहन नहीं कर पाते है. काजू की खेती  के लिए जिन क्षेत्रों में तापक्रम 200 से 300 रहता है एवं 1000 से 2000 मी. वर्षा होती है बहुत उत्तम माने जाते है. भारी एवं वर्ष भर वर्षा वाले क्षेत्र काजू की खेती हेतु उपयुक्त नहीं है. काजू की खेती अधिक उपज वाली खेती के लिए वर्ष में कम से कम 4 माह सूखा रहना चाहिए. फूल एवं फल  आते समय अधिक वर्षा एवं वातावरण में अधिक नमी होना हानिकारक है क्योंकि फफूदी की बीमारियां आने से फूल व फल गिर जाते हैं. काजू को हालांकि तटीय वृक्ष कहा जाता है लेकिन यह दूर दराज के इलाकों में भी सफलता से उगाया जा सकता है।

प्रजातियां (किस्में) 
भारतीय कृषि अनुसंधान परिष्द के विभिन्न केन्द्रों ने अनेक प्रजातियां विकसित की हैं जिन की 20 से 25 कि.ग्राम प्रति पेड़ उपज देने की क्षमता है. कुछ मुख्य प्रजातियां इस प्रकार है 

बी पी पी 1 उपज 17 कि.ग्रा. प्रति वृक्ष (25 वर्ष पुराना वृक्ष) छिलका चटकन 27.5 प्रतिशत एवं एक बीज (दाना) का औसत वजन 5 ग्रा.
बी पी पी 2 उपज 19 कि.ग्रा. प्रति वृक्ष (25 वर्ष) छिलका चटकन 26 प्रतिशत एवं एक बीज दाना का औसत वनज 4 ग्रा.
वेंगुरला 1 उपज 23 कि.ग्रा. प्रति वृक्ष (28 वर्ष) छिलका चटकन 31 प्रतिशत एवं बीज (दाना) का औसत वनज 6 ग्रा.
वेंगुरला  2- उपज 24 कि.ग्रा. प्रति वृक्ष (20 वर्ष) छिलका चटकन 32 प्रतिशत एवं एक बीज (दाना) का औसत वनज 4 ग्रा.
वेंगुरला  3- एक बीज (दाना) का औसत वनज 9 ग्रा.
वेंगुरला  दृ 4,5, वी आर आई- 1,2, उलाल- 1, 2, अनक्कायम-1, बी ल ए 39-4, क 22-1, एन डी आर 2-1 क 22-1, एवं एन डी आर 2-1 निर्यात के लिए बहुत अच्छी किस्में है।

भूमि तैयारी-
काजू की सफल खेती हेतु अच्छी गहरी चट्टानें रहित जल निकास वाली भूमि चयन करें. भूमि को समतल करके अच्छी जुताई करें. जंगलों में खेती करने से पहले जंगल की कटाइ करके सफाई कर लें और भूमि की जुताई करें. अगर जंगल वाली  भूमि समतल न हो तो बांध बना लें. 13 मी. (1 गुणा 1 गुणा 1 गुणा मी.) में गडढे खोद कर कुछ समय के लिए खुले छोड दें।
रोपण के लिए पौधें 

काजू में न व मादा फल अलग- अलग होते है. अतः वनस्पति प्रजनन (वेजिटेटिव प्रोपेगेसन) द्वारा तैयार किये गये पौधे अधिक एवं अच्छी जल्दी फसल देते है. एयर लेयरी पौधे सफलता पूर्वक तैयार किये जाते हैं लेकिन इन पर सूखे का असर ज्यादा पड़ता है एवं कम उम्र वाले होते है।
जबकि ग्राफटिंग द्वारा तैयार किये पौधे पर सूखे का कम असर होता है और लम्बी उम्र होती है. बडिंग एवं ग्राफटिंग दोंनो ही उत्तम तरीके हैं. ग्राफटिंग में एपीकोटाइल ग्राफटिंग एवं साफ्टवुड ग्राफटिंग तकनीक (विधि) सबसे सरल मानी जाती है. क्योंकि इन विधियों से पौधे जल्दी ही ज्यादा मात्रा में तैयार किये जा सकते है एवं सफलता से उगाये जा सकते है।

पौध से पौध की दूरी 
काजू के लिए प्रस्तावित पौधे से पौधे की दूरी 7.5 गुणा 7.5 मी. से 8 गुण 8 मीटर होती है. भूमि में उत्तम पौध प्रबंधन  के अनुसार पौधे से पौधे की दूरी कम किया जा सकता है यानी 4 गुण 4 मी. रखी जायेगी 7 से  9 वर्ष बाद कुछ पौधे निकालकर 8 गुणा 8 मीटर दूरी बना दी जाती है।
पौधे लगाने की विधि एवं समय 

अधिकतर चैफूली/चैकोर विधि से काजू के पौधे लगाये जाते है. काजू के पौधे लगाने का समय वर्षा ऋतु शुरू होने के बाद जूर से अगस्त के बीच जब वातावरण में पर्याप्त नमी हो उत्तम होता है. अगर सिंचाई की सुविधा हो तो सर्दियों को छोड़कर वर्ष के किसी भी माह में पौधे लगाये जा सकते है।
साधारणः

काजू के ग्राफटिंग से तैयार किये गये पौधे को 60 से.मी. (क्यूब) गडढों को उपर की मिट्टी एवं अच्छी सड़ी गली खाद या नाडेप खाद, वर्मी कम्पोस्ट खाद के मिश्रण से तीन चैथाई तक भर देवें. ग्राफटिंग से तैयार  किय गये पौधों की थैलियां हटाकर सावधानीपूर्वक गढ्ढे में लगा देवें. पौधे में ग्राफटिंग का जोड जमीन से कम से कम 5 से.मी. उपर रखें. ग्राफटिंग के जोड पर बंधे हुए प्लास्टिक की पट्टी को ध्यानपूर्वक हटायें।
पौधे को सहारा देने हेतु जरूरत के अनुसार बांस या लकड़ी के डण्डे गाड़ने चाहिए. गढ्ढे को घास फूस से ढक कर रखें।

खाद एवं उर्वरक

पर्याप्त पोषक तत्व प्रदान करने से काजू के पौधे का विकास अच्छा होता है एवं फूल जल्दी आना शुरू हो जाता है. काजू के प्रति वृक्ष 500 ग्रा. नाइट्रोजन, 125 ग्रा. फास्फोरस एवं 125 ग्रा. पोटाश प्रति वर्ष आवश्यकता पड़ती है इसकी पूर्ति हेतु वर्ष में दो बार 20 कि.ग्रा. प्रति वृक्ष नाडेप कम्पोस्ट या वर्मी कम्पोस्ट डालें. भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाने हेतु जैव उर्वरकों का प्रयोग करें. 2 कि.ग्रा. जैव उर्वरकों (अजोटोवेक्टर, अजोस्पीरीलम, फास्फोरस घुलन बैक्टीरियां) एवं 2 कि.ग्रा. गुड़ प्रति हेक्. को लगभग 200 कि.ग्रा. अच्छी सड़ी खाद में मिलायें और 7-10 दिन तक छाया में सड़ाकर पौधों के गमलों में बुरककर मिट्टी में मिलायें और सिंचाई करें।

अन्तराशस्यन 
काजू में लम्बे समय तक फल आने का इन्तजार, पैदावार कम-ज्यादा आदि को ध्यान में रखते हुए अन्तराशस्यन (इन्टर क्रोपिंग) को बढ़ावा देना चाहिए. भूमि, जलवायु एवं स्थानीय परिस्थितियों को मध्य नजर रखते हुए कम ऊँचाई वाली वार्षिक फसले जैसे- सब्जियां, दालें, हल्दी, अदरक, मूंगफली आदि पौधों की कतारों के बीच उगाना लाभदायक एवं भूमि का सद्उपयोग है।
जब काजू के पौधे बढ़कर पर्याप्त ऊँचाई पकड़ ले तब काजू के साथ काली मिर्च भी उगाई जा सकती है।

कटाई-छटाई 
काजू के पेड़ों को सही शकल देने एवं अच्छी उपज के लिए कटाई एवं छटाई जरूरी है जिसमें कृषि गतिविधियां (निराई, गुड़ाई, कीट नियंत्रण आदि) में भी आसानी होती है. पौधे लगाने के बाद खास कर प्रथम वर्ष पौधों (ग्राफटिंग) के नीचे से उगने वाले कलियों को बार-बार काटकर छंटाई करना जरूरी है नहीं ग्राफटिंग किया हुआ पौधा को सूखकर मरने का खतरा होता है।

सिंचाई- 
भारत में काजू की फसल आमतौर पर वर्षा पर ही निर्भर करती है. लेकिन खासकर अगर गर्मी के मौसम में जनवरी से मार्च अगर 15 दिन के अन्तर पर हल्की सिंचाई की जाये तो पैदावार में काफी इजाफा होगा।

मुख्य कीट एवं रोग का नियंत्रण
यह पाया गया है कि काजू की फसल पर लगभग 30 तरह के कीटों का प्रकोप होता है. जिनमें से मुख्य कीट है चाय-मच्छर, थ्रिप्स, जड़ एवं तना भेदक एवं फल भेदक।
चाय-मच्छर कीट वर्षा ऋतु में काजू की ताजा पत्तियों, कलियों  फूलों एवं कच्चे फलों का रस चूसकर फसल को बहुत नुकसान पहुंचाना है।
सूखे मौसम में थ्रिप्स पत्तियों के नीचे रस चूसते है. तना एवंज ड़ भेदक काजू के पौधे के तने एवंज ड़ो में घुसकर सुरंगे बनाकर तने को कमजोर कर देता है. फल भेदक कच्चे फलों में घुसकर पैदावार बहुत कम कर देता है।

नियंत्रण- इन सभी कीटों के नियंत्रण के लिए
1. जैव कीटनाशी (विवेरिया, बेसियाना, या मेटाराईजियम) 2 कि.ग्रा. प्रति हेक्., 2 कि.ग्रा. गुड़ के साथ 200 कि.ग्रा. कम्पोस्ट खाद में 7-10 दिन तक सड़ाकर पौधों के थावलों की मिट्टी में मिलाकर सिंचाई करें।
2. जैव कीटनाशी (विवेरिया या मेटाराईजियम) 2 कि.ग्रा. 500 ग्रा. गुड़ प्रति हेक्. को पानी में घोलकर 2 दिन तक सड़ाये और शाम के समय ताजा पानी में घोल बनाकर पौधों पर छिड़काव करें।
3. नीम तेल 2 ली. प्रति हेक्. का घोल बनाकर कीटों का प्रकोप होने पर हर 15-20 दिन बाद छिड़काव करें. नीम तेल पानी में घुलता नहीं है इसलिए घोल बनाते समय इसमें 2 पाउच सेम्पू के मिलायें।

4. कीटो का प्रकोप होने पर हर 15-20 दिन बाद गौमूत्र$गोबर $ वनस्पति (नीम बेसरम, ऑक, घतूरा पत्ती आदि ) से तैयार किया गया तरल कीटनाशी का छिड़काव करें. भाग्यवश काजू में कोई बीमारी  नहीं लगती है. जब बादल लगातार छाये रहते है तब पाउडरी मिल्डयू का प्रभाव होता है. इसके नियंत्रण हेतु जैव फफंदी नाशक ट्राईकोडर्मा 2 कि.ग्रा. प्रति हेक्. का शाम के समय छिड़काव करें।
फल तुड़ाई एवं उपज
काजू में प्रथम एवं द्वितीय वर्ष में फल आने लगे तब छटाई कर देना चाहिए. काजू के फल पकने पर बीज नीचे गिर जाते है उनको इक्ट्ठा करके 2-3 दिन फर्श पर सुखा कर सनई के बोरे में रख देना चाहिए. काजू की उपज 1 किलो प्रति वृक्ष शुरू होती है और अच्छे फसल प्रबंधन उपज को 10 किलो प्रति वृक्ष आने वाले 8-10 वर्ष में किया जा सकता है।

विपणन- 
काजू के विपणन की कोई समस्या नहीं है. बिना प्रसंस्कीरण किया हुआ काजू 10-12 रूपये प्रति किलो की दर से बाजार में बिकता है।


Produces from Jashpur, Chhattisgarh



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